Tuesday, January 12, 2016

Swami Vivekananda स्वामी विवेकानंद




स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्तिसंवत् १९२०)[6] को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजीपढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। परन्तु उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी कोपुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।

1881 में नरेंद्र पहली बार रामकृष्ण से मिले, जिन्होंने नरेंद्र के पिता की मृत्यु पश्च्यात मुख्य रूप से नरेंद्र पर आध्यात्मिक प्रकाश डाला। 

जब William Hastie जनरल असेंबली संस्था में William Wordsworth की कविता पर्यटनपर भाषण दे रहे थे, तब नरेंद्र ने अपने आप को रामकृष्ण से परिचित करवाया था
जब वे कविता के एक शब्द “Trance” का मतलब समझा रहे थे, तब उन्होंने अपने विद्यार्थियों से कहा की वे इसका मतलब जानने के लिए दक्षिणेश्वर में स्थित रामकृष्ण से मिले उनकी इस बात ने कई विद्यार्थियों को रामकृष्ण से मिलने प्रेरित किया, जिसमे नरेंद्र भी शामिल थे

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।

वे व्यक्तिगत रूप से नवम्बर 1881 में मिले, लेकिन नरेंद्र उसे अपनी रामकृष्ण के साथ पहली मुलाकात नहीं मानते, और ना ही कभी किसी ने उस मुलाकात को नरेंद्र और रामकृष्ण की पहली मुलाकात के रूप में देखा. उस समय नरेंद्र अपनी आने वाली F.A.(ललित कला) परीक्षा की तयारी कर रहे थे जब रामकृष्ण को सुरेन्द्र नाथ मित्र के घर अपना भाषण देने जाना था, तब उन्होंने नरेंद्र को अपने साथ ही रखा परांजपे के अनुसार, ”उस मुलाकात में रामकृष्ण ने युवा नरेंद्र को कुछ गाने के लिए कहा था और उनके गाने की कला से मोहित होकर उन्होंने नरेंद्र को अपने साथ दक्षिणेश्वर चलने कहा
31 मई, 1883 को वह अमेरिका गए 11 सितंबर, 1883 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयों और बहनों कह कर संबोधित किया इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बड़ी देर तक तालियां बजाते रहेवहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दुख होता है. अत: हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दुख न हो

अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887 में भारत लौट आएभारतीय धर्म-दर्शन का वास्तविक स्वरूप और किसी भी देश की अस्थिमज्जा माने जाने वाले युवकों के कर्तव्यों का रेखांकन कर स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण विश्व के जननायक बन गए

वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"

विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।

उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।






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